बच्चों को पालना बच्चों का खेल नही

बच्चों को पालना बच्चों का खेल नही

जी हां सही पढ़ा आपने……नई-नई जब शादी करके आई और पति के बाहों में बाहे डाल कर कही घूमने या शापिंग करने जाती तो नन्हे नन्हे बच्चों को अपने मम्मी पापा को इठलाते और मचलते देखती तो दिल गुदगुदा जाता। और मैं भी अपने बच्चे की कल्पना करने लगती।

फिर शादी के कुछ सालों बाद मैं प्रग्नेंट हुई ,और एक प्यारे से बच्चे की माँ बनी। फिर शुरू हुई मेरी असली परीक्षा, शुरुआत के चार महीने तो माँ ने सम्हाल दिया फिर जब अपने पतिदेव के साथ मैं अपने बच्चे को लेकर अपने घर आई। बाइस घंटे की लंबी यात्रा के बाद मैं कोलकाता आई। मेरा बच्चा उस समय चेहरे पहचानना ही शुरू किया था पर उसकी पहचान लिस्ट में मेरे पतिदेव तो थे ही नही।

वो अपनी नानी से काफी अटैच था। उसे पतिदेव जब भी गोद में लेते वो अपनी नानी की याद में गोते लगाने लगता। उसका रोना धोना देख कर मैं बोलती – “रहने ही दो तुमसे कब बच्चे सम्भाले थे जो तुम सम्हाल लोगे।” क्योंकि मेरे पतिदेव की हालत ये थी की उन्हें कोई बच्चा एक बार मेरे घर में देख ले तो वो वापस मेरे घर का रूख ना करता।ऐसे में अगर मैं ऐसा बोल रही थी तो कोई गलत तो ना था। पर मेरे पतिदेव को काफी बुरा लग जाता था। और हम एक दूसरे से लड़ पड़ते।

बेचारे की हालत धोबी के कुत्ते की तरह हो गयी थी। ना घर के ना घाट के। बेचारे ऑफिस से दौड़े-दौड़े घर आते की थोड़ा सम्हाल लूं। पर यहाँ बेटू इन्हें देख ही रोना शुरू कर देता।धीरे धीरे दोनों एक दूसरे के साथ सामंजस्य बनाने लगे तो एक नई समस्या आ गयी। बेटू सात माह का हो गया मै उसे बाहर का दूध और कुछ ठोस आहार देने लगी थी। हमारे सोसाइटी में नए साल की पार्टी थी।

सब मिलकर नीचे ही खाना पीना बना रहे थे। किसी ने उसे पनीर पकौड़ा दे दिया। पता नही कितना खाया ,कितना नही। पार्टी खत्म होने के बाद जब सारे लोग सो गए और हमलोग भी सो ही गये। तभी मेरे बेटे का लाउडस्पीकर चालू हो गया। हम दोनों परेशान हो एक दूसरे को देख रहे थे। आखिर में इसे क्या हुआ, फिर मैं और ये उसी समय डाक्टर के पास जाने की तैयारियां करने लगे।

फिर मैं सोची क्यों न जब डाक्टर के पास जा ही रही हूँ तो कुछ घरेलू उपाय भी कर लूं। ये सोच मैं गुनगुने पानी में हींग पिलाई तो ये महाराज उसी समय लंबी सी डकार लेकर सो गया। अब मैं और ये सोच रहे थे की अब क्या किया जाए। सोता हुआ देख उसे कही ले जाने की भी इच्छा नही हुई। दूसरे दिन सुबह फिर आपने अंदाज में मस्त रहा बेटू। तो डॉक्टर के पास ले जाकर क्या कहती।

अब ऐसा ड्रामा हर दो-चार दिन छोड़ का होते ही रहता। जिसमे नींद की बैंड बजती सो अलग ,क्योंकि दिक्कत होने पर बेटू रोता और आराम मिलते ही सो जाता, लेकिन उसके इस झमेले में हमारी नींद तो टूट जाती जो कि काफी मुश्किल से आती।

फिर धीरे धीरे चलना ,फिर गिरना और दौड़ना सीखा।एक दिन हम वीकेंड में इसे घुमाने ले कर पास के मॉल में गये। वहाँ न जाने क्यूँ जिद पर आ गया। और जिद मनवाने के लिए वही लेट गया। मैं भी सारे लाज शर्म छोड़ वही बैठ गयी। थोड़ी देर में कुछ बच्चे अपने मम्मी पापा के साथ पास से गुजरते हुए बेटू के जिद को देख कर हँसते और बोलते ममा वो देखो बैड बॉय ,अपनी ममा को तंग कर रहा है। और उन बच्चों के मम्मी पापा मुझे देख मुस्कुराते हुए आगे बढ़ते। क्योंकि वो भी इतना तो समझ ही रहे थे की उनका भी गुड सा दिखने वाला बच्चा किस जिद पर बैड बॉय बन जायेगा ,उन्हें भी नही पता होता।

अभी तो स्कूल नहीं जाता पर घर में उसके दिन रात के उधम को देखकर कभी कभी इच्छा तो होती है कि उसे फूल डे वाले स्कूल में डाल दू। भले ही एक मिनट भी आँखों से वो ओझल होता है तो दिल बेचैन हो जाता है। हर दिन इसके साथ एक नई चुनौती के साथ बीतता है, इस चुनौती को झेलने के बाद हर दिन लगता है कि सच में बच्चों को पालना बच्चो का खेल नही है।

आप भी तो हर दिन अपने बच्चों के साथ एक नया जीवन जीते है, आप भी अपना अनुभव साझा करें और मेरा अनुभव कैसा लगा? अपने विचार साझा करें।

आपकी दोस्त

पम्मी राजन

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