दर्द के वह सात घंटे सात जन्मों से भी मुश्किल थे!

दर्द के वह सात घंटे सात जन्मों से भी मुश्किल थे!

हम महिलाओं की जिंदगी में डर तो जैसे हर पड़ाव पर परीक्षा लेने को तैयार रहता है लेकिन लेबर रूम के डर के आगे शायद सब डर फीके लगें। मेरी प्रेगनेंसी की शुरुआत काफी मुश्किल रही, लेकिन आने वाले दिन कितने ज्यादा दर्द भरे हो सकते हैं यह मुझे पता नहीं था। नमस्ते मेरा नाम कृत्तिका बिष्ट है और यह मेरी डिलीवरी की कहानी है। पर यह तो है वह दर्द चाहे जितना भी ज्यादा हो उसके आगे बच्चे को पहली बार गोद में लेने का रोमांच फीका ही है।

 

प्रेगनेंसी के 35वें सप्ताह में मेरा सामना एक ऐसी चीज से हुआ जिससे हर गर्भवती महिला घबराती है। वह है फाल्स लेबर पेन यानि लेबर पेन जैसा झूठा दर्द, उस शाम मुझे लगा कि शायद अभी मेरी डिलीवरी हो जाएगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जैसे-तैसे तीन सप्ताह बीते और फिर आई वह शाम जिसके सात घंटों ने मुझे सातों जन्मों की याद एक साथ दिला दी।

 

मेरा 37वां सप्ताह चालू था। शुक्रवार की शाम का समय था। एकाएक मुझे लगा कि मेरे शरीर से सारा पानी निकल जाएगा। दरअसल मेरा वाटर ब्रेक हो गया था। मेरी सास ने मुझे तुरंत कपड़े बदलने और पैड लगाने की सलाह दी। एक पैड बदला फिर दूसरा फिर तीसरे तक जाते-जाते फ्लो कुछ कम हुआ। मैंने अपना मैटरनिटी बैग पहले ही पैक कर रखा था सो अस्पताल के लिए बस कैब का इंतजार था।

 

घर के दरवाजे पर खड़ी मैं सिर्फ आने वाले पलों के बारे में सोच रही थी। इसी बीच कैब आई और हम अस्पताल के लिए निकल पड़े। मम्मीजी ने रास्ते से ही मेरे हस्बैंड जो उस समय ऑफिस में थे उन्हें कॉल कर सीधे अस्पताल आने को कहा।

 

अस्पताल पहुंचकर सारी फॉर्मेलिटी व पेपर वर्क पूरे करके हम डॉक्टर के इंतजार में बैठे। इस दौरान मेरी सास काफी परेशान थी वह नर्स से बार बार गुस्से में यह कह रही थी कि इसका वाटर ब्रेक हो चुका है तुम डॉक्टर को जल्दी क्यों नहीं बुलाती।

 

करीब एक घंटे बाद डॉक्टर आई और उन्होंने तुरंत मुझे लेबर रूम में आने को कहा। इसके बाद मुझे दर्द का पहला इंजेक्शन लगाया गया। लेकिन इंजेक्शन लगने के बाद मुझे धीरे-धीरे करके ही दर्द उठ रहा था। काफी कोशिश के बाद भी मेरे कन्ट्रैक्शन यानि संकुचन इतना अधिक नहीं था कि नॉर्मल डिलीवरी हो सके।

 

डॉक्टर से मुझे लेबर रूम से बाहर जाने को कहा तो मुझे बहुत बुरा लगा। डॉक्टर ने कहा कि अभी कुछ घंटे रूको अगर फिर भी नहीं हो पाता तो हम देखेंगे। यहां यह देखेंगे से शायद डॉक्टर का मतलब था ऑपरेशन यानि सी सेक्शन जो मैं बिलकुल नहीं चाहती थी।

 

मेरी सास ने मुझे उस समय ज्यादा से ज्यादा टहलने की सलाह दी। इस समय मेरे लिए चलना और भी मुश्किल हो रहा था। लेकिन मैंने सांसों को नियंत्रित करने के लिए व्यायास सीखे थे सो कुछ देर के लिए तो आराम था। लेकिन उस दर्द को भूला पाना बेहद मुश्किल था जो रह रह कर मेरे कमर के निचले हिस्से में हो रहा था।

 

डॉक्टर ने रात को दो बजे एक बार फिर टेस्ट किया। इस समय तक संकुचन महज 2.00 से.मी. हुआ था जो नॉर्मल डिलीवरी के लिए बेहद कम था। रात को दो बजे फिर मुझे एक और दर्द का इंजेक्शन लगाया गया। इस बार भी काफी दर्द होना शुरु हुआ लेकिन यह भी डिलीवरी के लिए नाकाफी साबित हुआ।

 

समय निकल रहा था और मुझे डर लग रहा था कि कहीं मेरी डिलीवरी सी सेक्शन के द्वारा ही ना करनी पड़ी। अब समय वैसे भी कम हो गया था कि क्योंकि डॉक्टर ने कहा कि पानी बेहद कम हो गया है और बच्चे की धड़कन कम हो रही है।

सुबह के पांच बजे यानि पहला दर्द का इंजेक्शन लगने के ठीक सात घंटे बाद डॉक्टर ने कहा कि अब आखिरी बार ट्राई करते हैं वरना ऑपरेशन होगा। सुन कर ही मैं बहुत ज्यादा डर गयी थी क्योंकि शुरू से ही शायद मैंने खुद को ऑपरेशन के लिए तैयार नहीं किया था। लेकिन डॉक्टर बच्चे की सेहत को लेकर फिक्रमंद थे और कह रहे थे कि अब ऑपरेशन ही करना पड़ेगा। जब वह मुझे ऑपरेशन रूम में ले जाने लगे तो मैंने लगभग रोते हुए उनसे विनती की कि जब मैंने इतना दर्द सह लिया है तो प्लीज एक बार फिर से नॉर्मल डिलीवरी के लिए प्रयास कर लीजिएं।

 

डॉक्टर ने चेक किया तो संकुचन नॉर्मल डिलीवरी की लिए सही था, 10.00 से.मी.। बहुत ज्यादा दर्द तो हो ही रहा था, पर साथ ही बेहद डर भी लग रहा था। डिलीवरी की प्रक्रिया में मुझे लगा कि मैं बीच में ही बेहोश ना हो जाऊं। पर मेरे लिए मेरे डॉक्टर उस समय भगवान से कम ना थे। डॉक्टर से मुझे रिलैक्स होने को कहा और समझाया कि डर कर या पैनिक होकर स्थिति और बिगड़ सकती है। मैंने लंबी सांसें लेते हुए डॉक्टर के कहे अनुसार खुद को रिलैक्स करने की कोशिश की। बाहर खड़े मेरे सभी परिवार के लोग यही सोच रहे थे कि शायद मेरा सी सेक्शन हो रहा होगा।

 

लगभग आधी बेहोशी की हालत में जब मैंने अपने बच्चे की पहली किलकारी सुनी तो यकीन माने वो मेरे लिए आजतक की दुनिया की सबसे प्यारी और मधुर आवाज़ थी। डॉक्टर जब उसे लेकर गए तो मैं हल्का उठ कर उसे देखने की कोशिश कर रही थी, पता नहीं कहाँ से अचानक से इतनी हिम्मत आ गई थी। शायद मैं अब माँ बन गयी थी ना इसलिए।

 

जब डिलीवरी हो गई तो डॉक्टर मेरे बच्चे को लेकर नहलाने और साफ करने ले गई। उस समय बिलकुल बेहोशी में भी मैं उनसे बस यही कह रही थी कि मेरा बच्चा सही तो है ना? उसे मुझे क्यों नहीं दिखा रहे हैं?

 

थोड़ी देर बाद डॉक्टर ने एक नर्म से टॉवेल में लपेट कर मेरी बेटी को मेरी गोद में दिया। पहली बार उसका स्पर्श जब मैंने महसूस किया तो पाया कि उसकी त्वचा रुई सी मुलायम थी और लगता था मानो उसे हाथ ही लगाने पर वो मैला हो जाएगा। जैसे ही मैंने उसके नन्हें हाथों को छुआ तो उसने अपने छोटे-छोटे हाथों से मेरी ऊँगली को पकड़ लिया। इस पल की खुशी को मैं शायद ही कभी शब्दों में बयाँ कर पाऊं। उस समय मैं अपने खुशी के आंसू रोक ही नहीं पाई।

 

2-3 दिन बाद जब हम घर वापिस आए तो मुझे पता था कि अब मुझे ही मेरे बच्चे की पूरी तरह से देखभाल करनी है। हर माँ अपने बच्चे के लिए सबसे बेहतर चाहती है मैं भी चाहती थी।

 

जब पहली बार मैंने अपने बच्चे को नहलाया तो मैं बहुत डरी हुई थी। यकीन मानिए बच्चे को नहलाना बच्चों का खेल नहीं होता। इतनी नाजुक सी जान की आंखों पर साबुन लगने का डर.. उफ्फ पूरे बदन के जैसे रोएं ही खड़े हो जाते हैं।

 

मेरे मन में कई सवाल भी थे जैसे कि क्या मैंने उसे ठीक से पकड़ा है? क्या मैं उसे अच्छे से नहला रही हूँ? और इन सब से ऊपर कि कहीं मैं अपने बच्चे की स्किन पर गलत प्रोडक्ट्स तो नहीं इस्तेमाल कर रही हूँ? यहां मेरी सास ने फिर मेरी मदद की। उन्होंने मुझे बाकि सब से अलग हटकर बेबी डव इस्तेमाल करने की सलाह दी जो बच्चों की नाजुल त्वचा के लिए बेहद सौम्य और सुरक्षित है। मैंने अपने बच्चे को शुरु से ही बेबी डव के प्रोड्क्ट्स इस्तेमाल करवाएं।

 

बच्चों की त्वचा बड़ों के मुकाबले काफी तेजी से नमी खोती है ऐसे में आप नहीं चाहेंगी कि साबुन या शैंपू के हार्श कैमिक्ल आपके बच्चे को नुकसान पहुंचाएं। ऐसे में आप विश्वास कर सकती हैं बेबी डव पर जो बच्चों की कोमल त्वचा को कोमल बनाएं रखे।

 

(यह लेख बेबी डव द्वारा प्रायोजित है।)

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