हमारे घर में आज भी पापा को बाबा या बाबूजी कहते हैं। बचपन से ही मां और पिताजी के बीच के अंतर का भली भांति ज्ञान था। आज की तरह हमारे पिताजी कूल डैडी नहीं होते थे। उनको किसी फादर्स डे की जरूरत नही थी। उनका तो जब मन करता कूट कर याद दिला देते थे कि बेटे हम ही पिता हैं। मेरे खुद का ही नहीं पूरे कुनबे के बाबूजियों का यही हाल था।
जब थोड़े बड़े हुए तो सोचने लगे कि यह पापा भला किस मिट्टी के बने होते हैं जो हमारे साथ इतनी सख्ती बरतते हैं। क्या उनके दिल का कोई कोड हिला हुआ होता है क्या (तार नहीं लिखूंगा वरना कंप्यूटर इंजीनियरिंग की डिग्री बुरा मान जाएगी)। शादी के कई साल पहले ही सोच रखा था कि खुद पिता बनने के बाद इस चीज को जरूर डिबग (Debugg) करूंगा कि यह पापा लोगों को यह कौन सी चीज इतनी सख्त बना देती है। बच्चों को लाड़ प्यार तो पापा लोग भी दिखाते हैं लेकिन जब बात ममता की आती है तो पूरा कोटा ही मम्मियों के पलड़ें क्यों डाल दिया जाता है और खुद मैं इस एरर को नहीं आने दूंगा।
जिंदगी का वह अहम दिन
शादी के कुछ साल बाद ही मेरी जिंदगी में वह पल आया जब मेरा बेटा मेरी जिंदगी में आया। आज भी याद है वह दिन जब लेबर रूम में मेरी वाइफ थी और मैं बाहर। डरा मैं भी लेकिन दिखा नहीं सकता था क्योंकि मैं पापा बनने वाला था।
जिम्मेदारियां मैंने भी बांटी थी
शहर से दूर जाकर नौकरी करना अब मजबूरी नहीं जरूरत है। देश में पलायन के ऊपर लिखूं तो शायद फेसबुक इंस्टेट आर्टिक्ल के हिसाब से यह सबसे लंबा आर्टिक्ल बन जाएगा। खैर मुद्दे पर वापस आते हैं। बेटे के जन्म के बाद मुझे दिल्ली आना पड़ा। सुबह दस से सात की जॉब के लिए। पर आंखे अगर सिस्टम पर होती थी तो दिल के कुछ ऐसे तार भी थे जो मेरे बेटे से हमेशा जुड़े रहते थे।
हर शाम की वह वीडियो कॉल
जियो और महीने भर के फ्री इंटरनेट का शायद सबसे बड़ा शुक्रगुजार हम पापाओं का जहां ही है जो घर से दूर रहता है और हर शाम को पांच इंच की स्क्रीन पर अपने दिल के टुकड़े के दीदार करता है। बड़ा मुश्किल होता है यह समय। शब्दों में शायद वह दर्द बयां नहीं हो सकता और कंप्यूटर की स्क्रीन पर आंसूओं के गिरने के निशान नहीं बनते।
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दर्द हमें भी होता है गालिब
एक मां अपने बेटे से कुछ घंटे दूर रह जाए तो उसे बैचेनी होने लगती हैं। लेकिन मुझे जैसे कई पिताओं को अपने घर से दूर अपने जिगर के टुकडों से दूर रहना पड़ता है। इस दर्द को समझना बहुत मुश्किल होता है। यह हर दिन हर घंटे होता है। हर फिल्मी सीन हर इमोशनल ऐड को देखकर भी होता है। पार्क में खेलते किसी बच्चे को उसके पिता के साथ देखकर भी होता है। पर सहना पड़ता है क्योंकि पापा हूं मैं।
पर इस कशमकस ने यह सीखा दिया क्यों भारतीय परिवेश में पिता कठोर हो जाते हैं। रोजगार, दिनचर्या की आम गहमा गहमी व सामाजिक ढांचे में इंसान अक्सर घिसते-घिसते कठोर बन ही जाता है। अब समझ में आता है कि पापा क्यों वैसे थे दरअसल क्योंकि वह “पापा” थे।
डिबग कर लिया आखिर इश्यू क्या है
भारतीय पुरुष प्रधान समाज में दरअसल एक धारणा घर कर गई है कि बच्चे के डायपर चेंज करना, उसकी पॉटी साफ करना, उसे फीड कराना, बुखार होने पर पट्टी करना, पत्नी को प्रेगनेंसी में डॉक्टर के पास ले जाना, बच्चों के साथ बाहर घूमना आदि केवल स्त्री वर्ग के काम हैं। और कसम से यही सारी फसाद की जड़ भी है। हां इसे एक झटके में खत्म करना आसान भी नहीं है। इसलिए मैंने इसे स्टेप वाइज ही खत्म किया। क्योंकि भई पापा हूं मैं।
बच्चा जब मेरा बीमार होता है तो मैं भी रातों को नहीं सोता हूं। हां रो नहीं सकता क्योंकि पापा हूं मैं। जब मेरी बीवी खाना बनाती है तो अपने बच्चे के साथ मैं पूरा बच्चा बनकर खेलता हूं। कभी-कभी कटोरी में दाल रोटी या दूध चावल भी खिला देता हूं।
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जब मेरा बेटा बीमार हुआ था तो रात-रात भर जागकर अपनी पत्नी के साथ मैं भी खड़ा रहता था। मैं अपने बेटे को और मेरा बेटा मुझे बहुत प्यार करते हैं। लेकिन दुनिया वाले यही कहते हैं कि यह तो मम्मी का बेटा है। कभी-कभी बुरा लगता है लेकिन चुप ही रहता हूं क्योंकि पापा हूं मैं।
पैरेंटिंग की मेरी कोडिंग
अपना फंडा एकदम साफ है। अपने बेटे के सामने ऐसे पेश आना ताकि आज से बीस साल बाद भी अगर उसे किसी चीज की जरूरत हो तो वह उसी तरह मांगे जैसे आज तोतली जबां में चॉकलेट (थोकलेट) मांगता है। वह झिझक जो हमें अपने पिताजी से बात करने में होती है कम से कम वह मेरे बेटे को अपने पापा से करने में ना हो। अनुशासन, सुरक्षा व शिक्षा देने के कठोर रास्ते की जगह मैं शायद प्यार वाला चुनुं।
मैं चाहूंगा कि बड़ा होने पर मेरा बेटा यह ना कहे कि मुझे पापा से ज्यादा मम्मी ने प्यार किया है। वह शायद यह कहे कि मुझे दोनों ने बराबर का प्यार दिया है। हम अपने पिताजी को कभी उनके सामने लव यू पापाजी नहीं कह पाएं लेकिन उम्मीद है बड़ा होने पर भी मेरा बेटा मुझे लव यू डैडी जरूर कहता रहे। और हां अगर ना भी कहे तो कोई गम नहीं क्योंकि पापा हूं मैं।
(लेखक टेस्टिंग इंजीनियर हैं, लेख में आए टेक्निकल टर्म से घबराएं नहीं और हां एक पापा भी हैं।)
शब्दावलीः
डीबगः गलतियां खोजना (साधारण भाषा में)
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