जब हमारे घर बच्चा जन्म लेता है तो उस समय हमें डॉक्टर बच्चे के अच्छे स्वास्थ्य और भिन्न-भिन्न बीमारियों से बचने के लिए भिन्न-भिन्न टीकाकरण का सुझाव देते हैं ताकि टीकाकरण से बच्चे की काया निरोगी रहे। परंतु बच्चों को रोगों से बचाना हमारे संस्कार व परंपरा का काफी समय से एक अभिन्न अंग रहा है जिसका सभी को ज्ञान नहीं है। सुवर्णप्राशन संस्कार (Suvarnaprashan Sanskaar) हमारी उसी प्राचीन इतिहास की धरोहर है जो हिंदू धर्म के सोलह संस्कारों में से एक भी है।
हमारे शरीर के अंदर भिन्न-भिन्न रोगों से लड़ने की क्षमता यानी हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) हमें कई रोगों से बचाती है और जब यह शक्ति कम या खत्म हो जाती है तब हम रोग से पीड़ित हो जाते हैं। हमारे पूर्वजो ने हजारों साल पहले इस समस्या से निपटने का एक रास्ता निकाला और वह है स्वर्ण यानि सोना और प्रशन यानी चटाना और उन्होंने इसे सुवर्णप्राशन संस्कार के रूप में सभी के लिए जरूरी किया।
यह संस्कार हमारे सोलह संस्कारों में से एक है। जब भी हमारे समाज में बच्चे का जन्म होता है तब सोना या चांदी की सली से बच्चे की जिह्वा पर शहद चटाने या जिह्वा पर ओम लिखने की परंपरा रही है। इस परंपरा का स्वरूप है सुवर्णप्राशन संस्कार परंतु आज कम लोगों को इसकी जानकारी है। अगर हम इस परंपरा को निभाते तो आशा थी कि हमारी रोग से लड़ने की क्षमता कहीं बेहतर होती। स्वर्ण प्राशन की विधि को और सरल करने के लिए हमारे वैद्य-मुनियों ने स्वर्ण प्राशन बनाने की विधि भी बताई है।
स्वर्ण प्राशन शुद्ध स्वर्ण, आयुर्वेद की कुछ औषधियां, गाय का घी और शहद के मिश्रण से बनाया जाता है और यह शिशु के पैदा होने से लेकर शिशु की पूरी बाल्यवस्था तक या फिर कम से कम 6 महीने तक चटाना चाहिए। यदि किसी कारणवश यह छूट भी जाता है तो इसे आप बच्चे की 12 साल की आयु के भीतर तक दोबारा शुरू कर सकते हैं।
स्वर्ण हमारे शरीर के लिए श्रेष्ठतम धातु मानी जाती है और यह धातु ना केवल बच्चों के लिए अपितु यह हर उम्र के लिए उतनी ही फायदेमंद और रोग प्रतिकारक क्षमता बढ़ाने वाली होती है। इसलिए तो स्वर्ण प्राशन का हमारे जीवन में सदियों से महत्व चला आ रहा है। इसका शारीरिक और मानसिक विकास में महत्वपूर्ण प्रभाव होने के कारण ही शुभ माना जाता है। हमारे ऋषि मुनियों का मानना था कि स्वर्ण कैसे भी करके हमारे शरीर में जाना चाहिए चाहे वह पहनने के द्वारा या फिर सोने के बर्तन में खाना खाने के द्वारा हो।
सोना हमारे शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता ही है और साथ में यह बौद्धिक क्षमता भी बढ़ाता है। यह शरीर, मन एवं बुद्धि का उच्च विकास करने वाली धातु है।
वैसे तो स्वर्ण प्राशन संस्कार के बहुत सारे फायदे हैं। इनमें से कुछ इस प्रकार है:
#1. स्वर्ण प्राशन बुद्धि व पाचन शक्ति बल बढ़ाने वाला और शरीर व मन का तेजस्व बढ़ाने वाला है।
#2. अगर शिशु को प्रतिदिन स्वर्ण प्राशन का सेवन कराया जाए तो वह शिशु 1 महीने में मेघा युक्त बनता है और यह शिशु की भिन्न-भिन्न रोगों से रक्षा भी करता है।
#3. यदि शिशु को 6 माह तक सुवर्णप्राशन (Suvarnaprashan) का सेवन कराया जाए तो शिशु की स्मरण शक्ति कमाल की हो जाती है यानी उसे सुना हुआ सब याद रहता है। इसके कारण बच्चा ज्यादा तेजस्वी बनता है।
#4. बच्चे की रोग प्रतिकार क्षमता बढ़ती है। वह अन्य बच्चों की तुलना में कम बीमार पड़ता है। इस कारण वह तंदुरुस्त होने के कारण उसको एंटीबायोटिक या अन्य दवाइयों ना लेने की वजह से वह इन दवाइयों के दुष्प्रभाव से बचपन से ही बचा रहता है।
#5. स्वर्ण प्राशन से बच्चे के शारीरिक विकास में बढ़ोतरी होती है।
#6. शारीरिक और मानसिक विकास सही होने की वजह से वह ज्यादा होशियार और ज्यादा बुद्धिशाली बनता है।
#7. स्वर्ण प्राशन में शिशु की पाचन संबंधित कोई तकलीफ नहीं होती है।
#8. स्वर्ण प्राशन संस्कार बालक के वर्ण में भी निखार लाता है।
#9. स्वर्ण प्रशासन संस्कार से वायरल ओर बैक्टीरियल इनफेक्शन से भी बचाया जा सकता है।
#10. स्वर्ण प्राशन संस्कार से एक शिशु बलवान और सुंदर बनता है।
क्या आप एक माँ के रूप में अन्य माताओं से शब्दों या तस्वीरों के माध्यम से अपने अनुभव बांटना चाहती हैं? अगर हाँ, तो माताओं के संयुक्त संगठन का हिस्सा बने| यहाँ क्लिक करें और हम आपसे संपर्क करेंगे|
null
null